तुम ज़िन्दा हो
ख़ाक कर के वजूद को तुम्हारे,
और जलती ज़मीन को
भिगो कर आँसुओं में,
लौट आए थे हम फ़िर...
यादें तुम्हारी सीने में दफ़न ,
बातों के रुख़ भी मोड़े,
तमामो गुफ़्तगु के दरमियाँ
फ़िर फ़ीकी मुस्कराहटें…
मेरे जहाँ में अब तुम नहीं,
हाँ मग़र सीना जलता है,
हर बार जब तुम
मुझमें साँस लेती हो....
1 comment:
बढ़िया लिख लेती हैं आप । पढ़ कर लगता है जैसे किसी पुराने बिछड़े हुए को याद करती हो आप?
;)
हमको लगा बस, वैसे दिल पर मत लीजियेगा ।
काहे की हम दिल में आते हैं पर समझ में नहीं ।
:)
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