ख़ामोशी चीखती है...
देखा है मैंने रात की परछाई को,
ख़ाली सड़क पर,
एक मैली फटी चादर में,
ख़ुद को समेटे,
ऊँघते जागते,
सुबह का इंतज़ार करते.…
छुआ है मैंने रात की हथेली को,
अपनी खिड़की से,
चुपके से हाथ बढ़ा कर,
वो सफ़ेद थी,
और नाज़ुक,
मगर बरफ़ जैसी ठंडी…
सुना है मैंने रात की ख़ामोशी को,
दोनों आँखों से,
एक ज़रा सा शोर नहीं,
चुपचाप,
अपने ही कानों में,
वो बेआवाज़ चीखती है.…
नम्रता झा
1 comment:
बहुत सुंदर
आशीष और शुभकामनाएं
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