दंश
दंश पिया मोहे ऐसा काहे दिया
जो शूल बन के चुभता है
सौतन के तुम ऐसे हुए
के भूले मेरी सूरत औ सीरत
तुमको मैं कैसे बताऊँ
जिया में मेरे तू ही बसता है
सींचा था जिस प्रेम तरु को
लहू पिला कर हृदय का
वही धर रूप भुजंग सा
अब मोहे मानो दसता है
छन भर को अँखियाँ सोती नाही
निन्दिया ने है मुख ऐसा फेरा
निठुर हुए दोनों दिन रैना
चैन कहाँ अब दरसता है
मोहनी मूरत तुमरी नैनन में बसी
भई मैं प्रीत में जोगन ऐसी
के जग मोहे अब देता है ताने
बिजुरी बन कर बरसता है
दंश पिया मोहे ऐसा काहे दिया
जो शूल बन के चुभता है
नम्रता झा
2 comments:
heart touching poem... :)
:)
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