तनहापन
शहर नया
लोग अजनबी
रास्ते अनदेखे
चलती जा रही हूँ
ना जाने किसकी तलाश में
एक दिन गुज़रता है
जैसे एक सदी
और टूटती है किरच किरच उम्मीद
हर शाम थोड़ी थोड़ी
उम्मीद के एक रोज़ ये शहर
मुझे बाहों में भर लेगा
रात इस शहर की भी
लेकिन अपनी सी लगती है
और अपना लगता है चाँद
वैसा ही रौशन
उतनी ही दूर
जैसा मेरे घर की खिड़की से दिखता था
और आज भी तन्हा है
मग़र मुस्कुराता है
शायद मुझ जैसे ही
ये भी कुछ छुपाता है
शायद घर से दूरी
शायद तनहापन
नम्रता झा
5 comments:
awesome.. :)
Thankyou Rahul...:)
Superb! U r magician of words.....:)
aisa bhi kuch khaas nahi hai... thnks anyway satyajeet..:)
satyajeet - i agree with you..she is magician of words
abhi toh yeh shuruwat hai..aur waise bhi har bada kalakaar apne ko bada thode hi kehta hai...kyun namrata ;)
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